श्रीमदभगवद्गीता- 🌼साधक संजीवनी🌼
अध्याय दो श्लोक संख्या 54 की विस्तृत व्याख्या—
👉 [यहाँ अर्जुनने स्थितप्रज्ञ के विषयमें जो प्रश्न किये हैं, इन प्रश्नोंके पहले अर्जुनके मनमें कर्म और बुद्धि (दूसरे अध्यायके 47वें से 50वें श्लोकतक) को लेकर शंका पैदा हुई थी। परन्तु भगवान्ने 52वें 53वें श्लोकोंमें कहा कि जब तेरी बुद्धि मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिको तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा—यह सुनकर अर्जुन के मनमें शंका हुई कि जब मैं योगको प्राप्त हो जाऊँगा, स्थितप्रज्ञ हो जाऊँगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे? अतः अर्जुनने इस अपनी व्यक्तिगत शंकाको पहले पूछ लिया और कर्म तथा बुद्धिको लेकर अर्थात् सिद्धान्तको लेकर जो दूसरी शंका थी, उसको अर्जुनने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंका वर्णन होनेके बाद (तीसरे अध्यायके पहले दूसरे श्लोकमें) पूछ लिया। यदि अर्जुन सिद्धान्त का प्रश्न यहाँ 54वें श्लोकमें ही कर लेते तो स्थितप्रज्ञके विषयमें प्रश्न करनेका अवसर बहुत दूर पड़ जाता]
‘समाधिस्थस्य’– जो मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो चुका है, उसके लिये यहाँ ‘समाधिस्थ’ पद आया है।
‘स्थितप्रज्ञस्य’– यह पद साधक और सिद्ध दोनोंका वाचक है। जिसका विचार दृढ़ है, जो साधनसे कभी विचलित नहीं होता, ऐसा साधक भी स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धिवाला) है और परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है, ऐसा सिद्ध भी स्थितप्रज्ञ है। अतः यहाँ ‘स्थितप्रज्ञ’ शब्दसे साधक और सिद्ध दोनों लिये गये हैं। पहले 41वें से 45वें श्लोक तक और 47वें से 53वें श्लोकतक साधकोंका वर्णन हुआ है; अतः आगेके श्लोकों में सिद्धके लक्षणोंमें साधकों का भी वर्णन हुआ है।
यहाँ शंका होती है कि अर्जुन ने तो ‘समाधिस्थस्य’ पद से सिद्ध स्थितप्रज्ञकी बात ही पूछी थी, पर भगवान्ने स्थितप्रज्ञके लक्षणों में साधकोंकी बातें क्यों कहीं? इसका समाधान है कि ज्ञानयोगी साधककी तो प्रायः साधन अवस्थामें ही कर्मोंसे उपरति हो जाती है। सिद्ध-अवस्थामें वह कर्मोंसे विशेष उपराम हो जाता है। भक्तियोगी साधककी भी साधन-अवस्थामें जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्म करनेकी रुचि होती है और इनकी बहुलता भी होती है। सिद्ध-अवस्थामें तो भगवत्सम्बन्धी कर्म विशेषतासे होते हैं। इस तरह ज्ञानयोगी और भक्तियोगी- दोनोंकी साधन और सिद्ध-अवस्थामें अन्तर आ जाता है, पर कर्मयोगीकी साधन और सिद्ध-अवस्था में अन्तर नहीं आता। उसका दोनों अवस्थाओंमें कर्म करने का प्रवाह ज्यों-का-त्यों चलता रहता है। कारण कि साधन अवस्थामें उसका कर्म करनेका प्रवाह रहा है और उसके योगपर आरूढ़ होनेमें भी कर्म ही खास कारण रहे हैं। अतः भगवान्ने सिद्धके लक्षणोंमें, साधक जिस तरह सिद्ध हो सके, उसके साधन भी बता दिये हैं और जो सिद्ध हो गये हैं, उनके लक्षण भी बता दिये हैं।
‘का भाषा’– परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य को किस वाणीसे कहा जाता है अर्थात् उसके क्या लक्षण होते हैं? (इसका उत्तर भगवान्ने आगेके श्लोक में दिया है)
‘स्थितधीः किं प्रभाषेत’– वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है? (इसका उत्तर भगवान्ने 56वें 57वें श्लोकमें दिया है)
‘किमासीत’– वह कैसे बैठता है अर्थात् संसारसे किस तरह उपराम होता है? (इसका उत्तर भगवान्ने 58वें से 63वें श्लोकतक दिया है)
‘व्रजेत किम्’– वह कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार कैसे करता है? (इसका उत्तर भगवान्ने 64से 71वें श्लोकतक दिया है)
🙌स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज🙏